Monday, March 31, 2014

How to live life

लोग अपनी ज़िन्दगी अलग अलग तरह से जीते हैं. लेकिन एक तरह से जीने के बाद उनकी ख्वाहिश यही रह जाती है कि वे ज़िन्दगी दूसरी तरह से नहीं जी पाये. मसलन (उदाहरणतः) कोई व्यक्ति टेलेंटेड है, मसलन पढ़ाई में, वो ज़िन्दगी पढ़ पढ़ कर निकाल देता है और फिर बाद में ये सोचता है कि उसको ज़िन्दगी में खेल कूद में भी हिस्सा लेना चाहिए था. पर वो यही सोच कर बैठ जाता है कि अब कर भी क्या सकते हैं. आप कुछ भी कर लें ज़िन्दगी में हमेशा कुछ न कुछ छूट ही जाएगा. लेकिन मैंने अपनी ज़िन्दगी हर तरह से जी ली. इसलिए मुझे किसी बात का दुःख नहीं है. मैं पहले पढ़ने में काफी अच्छा हुआ करता था और अपना ज़्यादातर समय पढ़ाई में ही निकाल देता था. लेकिन बाद में मैंने अपनी ज़िन्दगी अलग तरह से जीनी स्टार्ट की. मैं बाकी बच्चों की तरह लोफरगिरी करने लगा. लेकिन बाद में अहसास हुआ कि पहली वाली लाइफ मुझे ज़यादा सूट करती थी. लेकिन अब काफी देर हो चुकी थी. न मैं पहले जैसा बन सकता था और न ही अब जैसे जी रहा था, वैसे जी पा रहा था. "दूसरों के जैसा बनने कि चाहत में न मैं उनके जैसा बन पाया और खुद को भी खो दिया". अंत में मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि आप जैसे भी हैं बढ़िया हैं. 

Wednesday, March 26, 2014

Importance of Time (Before Board Exams)

पहले लगता था कि बहुत समय है, पढ़ लेंगे. लेकिन साल का अंत आते-आते समय का महत्त्व पता लगता है. तब लगता है कि एक दिन में १६ घंटे पढ़ेंगे तब कुछ बात बनेगी. सलाह-मशवरा से जाना कि रात तो अपनी है, जितना चाहे पढ़ लो. लेकिन ये रात खुद भी सोती है और हमें भी सुलाती है. कहते तो ऐसा भी हैं कि सुबह चार बजे उठकर अच्छी पढाई होती है पर सुबह खुद भी उठती है, दूसरों को भी उठाती है, पर उठना कौन चाहता है?

Monday, March 24, 2014

Last Board Exam

२२ मार्च २०१४. हमारे आखिरी बोर्ड परीक्षा की तारीख. वो तारीख जिसका हर छात्र और छात्रा को इंतज़ार था. आखिर वो आ ही गई. लेकिन हमारा दिल दुबारा से उन बाइस दिनों को जीना चाहता था. लेकिन हमारा दिमाग और शरीर चिल्ला रहे थे, मना कर रहे थे दुबारा से उन दिनों को जीने के लिए. हमारा दिल तो सेंटी था. उसको तो बस उन बीते बाइस दिनों में हुई अच्छी बातें याद आ रही थी. यारों कि यारियाँ याद आ रही थी. उसको इस बात का गम हो रहा था कि कुछ दोस्तों से वो दुबारा नहीं मिल पायेगा. लेकिन हमारा दिमाग तो सेंटी नहीं था, वो तो समझदार था. उसे ही पता था कि क्या गुज़री है उसके ऊपर और हमारे शरीर के ऊपर. दिन रात एक करके महनत की उसने और शरीर ने मिलकर. साल भर से जो नहीं पढ़ा वो २२ दिनों में घोट लेना चाहते थे. दिल तो नादान है, दिमाग और शरीर में ताकत नहीं बची थी दुबारा से उस दबाव और टॉर्चर को सहने की. फ़ोन पर कभी परीक्षाओं के बीच में पड़ने वाली छुट्टियों में बात होती तो यही होती कि ज़ल्दी से आये २२ मार्च और अब जब आ गई थी तब मन सोच रहा था कि गलत ख्वाहिश की थी हमने, तब हमें अपनी गलती का अहसास हो रहा था, तब लग रहा था कि हम उन २२ दिनों के बेहतरीन दबाव वाले लम्हों को भुनाने में नाकाम रहे. पर नहीं अब बोर्ड परीक्षाओं में पड़े दबाव को दुबारा झेलने की हिमात शायद ही किसी में हो.

Sunday, July 10, 2011

Shopkeepers not giving change

आज मैं बेहद ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा करने जा रहा हूँ. जेसा कि आप सब जानते हैं कि जब भी आप कहीं खरीददारी करने जाते हैं चाहे कितने भी रुपयों की, तब आपको चेंज में जो पेसे बचते हैं जेसे कि एक या पांच रूपये तब ज्यादातर आपको चेंज नहीं मिलता. और वो दुकानदार हमारे पेसे खा जाते हैं. और यदि हम उनके रूपये रख ले तो! अब तो हमें हमेशा साथ में चेंज लेकर ही चलना पड़ा करेगा. नहीं तो ये दुकानदार मन माफिक रूपये खा जाया करेंगे. चलो मैं अपने साथ घटित एक घटना बताता हूँ. एक बार मैं स्कूल बस कि फीस भरने गया था. तब मेरे पास २३० रूपये थे. और फीस थी २२५. तो मेने फीस कलेक्टर को २३० रूपये दिए पर उन्होंने मुझे वापस ५ रूपये नहीं दिए. जब मेने चेंज के लिए पूछा तब उन्होंने कह दिया कि उनके पास ५ रूपये नहीं हैं. अब आप ही बताओ कि क्या उनके पास ५ रूपये भी नहीं होंगे. इतने सारे बच्चे फीस जमा करते हैं तो किसी न किसी ने तो ५ रूपये दिए ही होंगे. तो भाइयों आज से या तो चेंज लेकर चलो या दुकानदारो को रूपये खिलाओ.


आज मैं अपना ब्लॉग यही ख़तम करता हूँ. बाय.

Sunday, June 12, 2011

Cycle

मेरी छुट्टियाँ चल रही हैं और बड़े भाई साहब भी दिल्ली गए हुए हैं. तो पिताजी मुझे २-३ घंटे के लिए दुकान पर बुला लेते हैं. एक दिन मैं दूकान पर बता हुआ था. और दुकान से बहार देख रहा था. तो मेने गौर किया कि अब हमारी दुनिया में बहुत कम लोग ही पैदल चलते हैं. पर मुझे इस बात की भी उतनी ही ख़ुशी हुई कि जो लोग किसी साधन से चलते हैं उनमें साइकल का इस्तेमाल ज्यादा होता है. मुझे ख़ुशी इसलिए हुई क्योंकि साइकिल से समय की बचत और प्रदूषण कम होता है. मैं चाहता हूँ कि सारी दुनिया साइकिल का इस्तेमाल करे पर ऐसा संभव नहीं है क्योंकि किसी दूर स्थल पर जाने के लिए तो ज्यादा गति वाले साधनों कि आवश्यकता पड़ेगी ही. लेकिन फिर भी हम साइकिल का इस्तेमाल कर सकते हैं जहाँ जहाँ इसका इस्तेमाल किया जा सके. साइकिल का सबसे बड़ा लाभ यह भी है कि यह सस्ती होती है और साधनों से.

तो भाइयों मेरी आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि जहाँ साइकिल का इस्तेमाल किया जा सके वहां उसे इस्तेमाल करो.

Thursday, December 2, 2010

02/12/10 - C.C.E.

इस साल, मतलब कि २०१० से, सी.बी.एस.ई. ने पढाई का नया सिस्टम लागू किया जिसका नाम है सी.सी.ई. इससे उन्होंने कहा था कि बच्चों पर से पढाई का बोझ कम हो जायेगा और अध्यापक/अध्यापिकाओं पर भी; पर मुझे ऐसा बिलकुल भी नहीं लगता. इससे पढाई का बोझ और ज्यादा बढ़ गया है. इस पर हमारी अंग्रेजी की किताब में एक कविता भी है, हिंदी में, और उसमे दो पंक्तियाँ मुझे गलत लगी और वो ये थी - परिणामों के भय से अब कोई बालक नहीं डरेगा और एक कुछ ऐसे थी परीक्षा से कोई नहीं घबराएगा. अगर मैने कोई बात गलत लिखी हो तो मुझे माफ़ करना. पर हम कर भी क्या सकते हैं. हम तो बस अपना गुस्सा प्रकट कर सकते हैं. अगर हम कुछ कर सकते तो ये सिस्टम कब का ख़त्म हो चुका होता. क्यों भाइयों? मैने सी.सी.ई. के बारे में खोजा तो मुझे हर जगह उसकी बुराई ही दिखी सिर्फ कुछ न्यूज वाली और सी.बी.एस.ई. की वेबसाइट्स को छोड़कर. जैसे आजकल चारा घोटाला, २ जी घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला, आदर्श घोटाला चल रहे हैं, ऐसे ही सी.सी.ई. घोटाला चलना चाहिए. आप कहेंगे कि ये सब घोटाले तो रुपयों की हेरा फेरी कि वजह से हुए हैं, इसमें सी.सी.ई. कहाँ से आ गया, सी.सी.ई. में तो रुपयों का कोई घोटाला नहीं हुआ है पर जनाब इसमें शिक्षा का घोटाला तो हुआ है.

आज का मेरा ये ब्लॉग यही ख़त्म होता है. और हाँ इस ब्लॉग को पढने के बाद आप खाली हाथ मत बैठ जाना. इसके बारे में आवाज उठाना.

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Wednesday, October 20, 2010

20/10/10 - a morning I never seen.

आज मेरा दिन कुछ ख़ास नहीं गया. आज स्कूल में सुबह मैं अपने दोस्तों से कह रहा था कि मैं सुबह के वक़्त खुश रहने की कोशिश करता हूँ. फिर असेम्बली के बाद हम अपनी अपनी क्लासेस में जा रहे थे कि पी.टी.आई सर ने सब पर अपना गुस्सा दिखाना शुरू कर दिया. पहले उन्होंने किसको मारा मुझे ये तो नहीं पता पर वो सबको बहुत बुरी तरह मार रहे थे. वो जब मेरी रो में आये और जब उन्होंने मुझसे आगे वाले बच्चे को मारा तब मेरा दिल धड़कना बंद हो गया और फिर मुड़कर उन्होंने मुझे देखा और मुझको डांटा तब तो मेरी हालत बिलकुल ही बदतर हो गयी पर उन्होंने मुझे पीटा नहीं. तब मेने भगवान् को शुक्रिया अदा किया. और फिर सब अपनी क्लासेस में आ गए. फिर मेने अपने एक दोस्त से पूछा की सर गुस्सा क्यों कर रहे थे तब उसने बताया की फादर (प्रिंसिपल) ने उनसे ये कहा था की तुम बिलकुल भी discipline नहीं रख रहे हो स्कूल में और इसलिए उनको गुस्सा आ गया था. फिर मैं सोचने लगा की इतनी सी बात के लिए सर ने इतने बच्चों को मारा और वो भी बिना किसी बात पर. खैर छोडो इस बात को. इस बात से मेरा पढाई में भी मन नहीं लग पाया. और इस तरह मैं सुबह के वक़्त खुश नहीं रह पाया. (पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढेगा इंडिया).

चलो आज के लिए मैं इस ब्लॉग को यही ख़तम करता हूँ. बाय.

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